Tuesday, June 21, 2016

संगमरमरी फर्शों पर ही, पाँव फिसलते देखे हैं -सतीश सक्सेना

ड़े बड़ों के,सावन में अरमान मचलते देखे हैं 
सावन भादों की रातों, ईमान बहकते देखे हैं 

गर्वीले, अय्याश, नशे में रहें , मगर ये याद रहे  
संगमरमरी फर्शों पर ही, पाँव फिसलते देखे हैं 

कई बार मौसम भी, अपना रंग दिखा ही देता है
सावन की मदहोशी में, अंगार पिघलते देखे हैं 

झुग्गी से महलों के वादे, सदियों का दस्तूर रहा
राजमहल ने मोची के भी सिक्के चलते देखे हैं 

मूर्ख बना के कंगालों को, जश्न मनाते महलों ने
अक्सर ठट्ठा मार मारकर, जाम छलकते देखे हैं 

5 comments:

  1. कई बार मौसम भी,अपना रंग दिखा ही देता है
    फागुन की मदहोशी में,अंगार पिघलते देखे हैं !
    ....
    झुग्गी से महलों के वादे,सदियों का दस्तूर रहा
    राजमहल ने मोची के भी सिक्के चलते देखे हैं

    ....... बहुत सही कब किसका वक़्त हो, कोई नहीं जानता
    ..

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  2. जश्न मनाते ठठ्ठा मार जाम छलकाते
    होशियार सियारों के मंदिर में
    मूर्ख बने कंगाल बने को
    फूल चढा‌ते भी देखे हैं । :)

    बहुत सुन्दर ।

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  3. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 23 जून 2016 को लिंक की गई है............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  4. गर्वीले, अय्याश, नशे में रहें , मगर ये याद रहे
    संगमरमरी फर्शों पर ही,पाँव फिसलते देखे हैं !

    क्या बात है सर

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- सतीश सक्सेना

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