Tuesday, December 29, 2015

एक अजनबी जाने कैसा गीत सुनाकर चला गया -सतीश सक्सेना

सो न सकूंगी आसानी से 
याद  दिलाती  रातों में !
बंद न हो पाएं  दरवाजे
कुछ तो था उन बातों में !
ले कंगन मनिहार बेंचने 
आया इकदिन आँगन में,
जाने कैसे सम्मोहन में , 
छेड़छाड़ कर चला गया !
पहली बार मिला, जूड़े में फूल सजा के चला गया !

रोक न पायीं अनजाने को
मंत्रमुग्ध सा आवाहन था !
सागर जैसी व्याकुलता में 
लगता कैसा मनमोहन था !
हृदय जीत ले गया चितेरा 
चित्र बनाकर, चुटकी में, 
सदियों से थे ओठ कुंवारे, 
गीले करके , चला गया !
बैरन निंदिया ऐसी आयी, मांग सज़ा के चला गया !  

उसके हाथ सुगन्धित इतने
मैं मदहोशी में खोयी थी !
उसकी आहट से जागी थी
उसके जाने पर सोयी थी !
केशव जैसा आकर्षण ले 
वह निशब्द ही आया था  
जाने कब मेंहदी से दिल का, 
चिन्ह बनाकर, चला गया !
कितनी परतों में सोया था दिल, सहला कर चला गया !

उसके सारे काम, हमारी
जगती आँखों मध्य हुए थे !
जाने कैसी बेसुध थी मैं ,
अस्तव्यस्त से वस्त्र हुए थे !
सखि ये सबके बीच हुआ
था, भरी दुपहरी आँगन में ,

पास बैठकर हौले हौले ,
लट सहला के चला गया !
एक अजनबी जाने कैसा, गीत सुनाकर चला गया !


Saturday, December 26, 2015

कौन गुस्ताख़ छेड़ता है हमें - सतीश सक्सेना

कौन छिप छिप के देखता है हमें ,
जैसे जनमों से , जानता है हमें !

जिसने आवाज दी, यहाँ आये 
कौन ग़ुस्ताख़ , छेड़ता है हमें ?

वह बे मिसाल हौसला, लेकर  
गहरी मांदों में खोजता है हमें ! 

नासमझ आशिक़ी सलामत है 
इतनी शिद्दत, से चाहता है हमें !

इश्क़ ने दर्द , बेहिसाब  दिया ,
कौन सपनों में , हंसाता है हमें ! 

Tuesday, December 22, 2015

नाम नदियों का रखे, देश में नाले देखे -सतीश सक्सेना

मैंने इस गाँव में,कुछ घर बिना ताले देखे !
बुझे चूल्हे मिले और बिन दिये,आले देखे !

कभी जूठन,कभी पत्ते औ ज्वार की रोटी
किसने मज़दूर के घर,खाने के लाले देखे !

आ गया हाथ चलाना भी इन गुलाबों को 
आज भौंरों के बदन में , चुभे भाले देखे !

कैसे औरों का गिरेबान दिखाते हाक़िम  
तेरे महलों की दिवारों में भी जाले देखे !

भला हुआ कि सरसती है,जमीं के नीचे
नाम नदियों का रखे,देश में  नाले देखे !

Saturday, December 12, 2015

खूब पुरस्कृत दरबारों में फिर भी नज़र झुकाएं गीत - सतीश सक्सेना

जिन दिनों लेखन शुरू किया था उन दिनों भी, एक भावना मन में थी कि अगर मेरी कलम ईमानदार है तो किसी से प्रार्थना करने नहीं जाऊंगा कि मेरे लेखन को मान्यता मिले, आज नहीं तो कल, देर सवेर लोग पढ़ेंगे अवश्य !
आश्चर्य होता है कि यहाँ के स्थापित विद्यामार्तंड, किस कदर चापलूसी पसंद करते हैं ……… 
 हमें हिंदी के सूरज और चांदों का विरोध करना चाहिए और जनता के सामने लाना चाहिए हो सकता है इन ताकतवर लोगों के खिलाफ बोलने से, इनके गुस्से का सामना करना पड़े मगर हमें इस तरह के घटिया सम्मान की परवाह नहीं करनी चाहिए ! मंगलकामनाएं हिन्दी को, एक दिन इसके दिन भी फिरेंगे !

कैसे कैसे लोग यहाँ पर
हिंदी के मार्तंड कहाए !
कुर्सी पायी लेट लेट कर 
सुरा सुंदरी, भोग लगाए !
ऐसे राजा इंद्र  देख कर , 
हंसी उड़ायें मेरे गीत !
हिंदी के आराध्य बने हैं, कैसे कैसे लोभी गीत !

कलम फुसफुसी रखने वाले
पुरस्कार की जुगत भिड़ाये
जहाँ आज बंट रहीं अशर्फी
प्रतिभा नाक रगड़ती पाये !
अभिलाषाएँ छिप न सकेंगी
कैसे  बनें यशस्वी गीत  ?
बेच प्रतिष्ठा गौरव अपना, पुरस्कार हथियाते गीत !


इनके आशीषों से मिलता
रचनाओं का फल भी ऐसे
एक इशारे से आ जाता ,
आसमान, चरणों में जैसे !
सिगरट और शराब संग में 
साकी के संग बैठे मीत !  
पाण्डुलिपि पर छिड़कें  दारु, मोहित होते मेरे गीत !

चारण, भांड हमेशा रचते
रहे , गीत  रजवाड़ों के  !
वफादार लेखनी रही थी
राजों और सुल्तानों की !
रहे मसखरे, जीवन भर ही, 
खूब सुनाये  स्तुति गीत !
खूब पुरस्कृत दरबारों में फिर भी नज़र झुकाएं गीत !

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