Friday, July 25, 2014

मुझको सदियों से रुलाता है कोई - सतीश सक्सेना

मुझको रातों में ,रुलाता है कोई,
रोज आकर,थपथपाता है,कोई !

करवटें , रोज़  बदलता  पाकर ,
हाथ बालों में, फिराता है कोई !

जब कभी दर्द में झपकी न लगे
नींद को, लोरी सुनाता है कोई !

जब कभी आँख भर आयी, तभी 
हिम्मतें मुझको दिलाता है कोई 

जब भी मैंने रूठ कर खाया नहीं 
एक कौरा,मुंह में दे जाता कोई !

एक बच्चे से, न जाने क्या हुआ
पूरे जीवन , रूठ जाता है कोई !

20 comments:

  1. " मा निषाद ! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समा: ।
    यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥"
    वाल्मीकि ,[ आदि- काव्य ]

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  2. मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ .....

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  3. रो लेना बहुत अच्छा होता है
    खुशनसीब होता है
    आज के समय में
    अगर कोई रो भी पाता है ।

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  4. Some times you are marvellous.Nice poem :)

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  5. वेदना से ही तो जनमती है कविता। आपकी कविता दिल को छू गई।

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  6. बेहतरीन अंदाज़..... सुन्दर
    अभिव्यक्ति........

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  7. माँ की याद.... बहुत मार्मिक।

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  8. कितनी रातें रूठ कर खाया नहीं
    एक कौरा, मुंह में दे जाता कोई !
    … माँ जैसा कोई नहीं

    मर्मस्पर्शी रचना

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  9. आपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 26 . 7 . 2014 दिन शनिवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !

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  10. भावपूर्ण !
    शुभकामनाये !

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  11. Besides fears and frustrations of day to day life, there is a self which struggles against all odds and tries to uplift spirit. You have good friend with you. Congrats.

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  12. बहुत मार्मिक रचना है !

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  13. लाजवाब ! हर एक पंक्ति कितना खूबसूरत !

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  14. कितनी रातें रूठ कर खाया नहीं
    एक कौरा, मुंह में दे जाता कोई !
    … माँ जैसा कोई नहीं

    मर्मस्पर्शी रचना सतीश जी :))

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  15. koi aata,aapko bharma jata....sahara de jata....dil chhu li..aapki rachna..

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एक निवेदन !
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- सतीश सक्सेना

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