Thursday, August 29, 2013

हमने हाथ लगाकर देखा,ठंडक है, अंगारों में -सतीश सक्सेना

आज रहा मन उखड़ा उखड़ा,महलों के गलियारों में !
जी करता है यहाँ से निकलें,रहें कहीं  अंधियारों में ! 

कभी कभी अपने भी जाने क्यों, बेगाने लगते हैं ?
जाने क्यों आनंद न आये,शीतल सुखद बहारों में ! 

वे भी दिन थे जब चलने पर,धरती कांपा करती थी,

मगर आज वो जान न दिखती,बस्ती के सरदारों में !

भ्रष्टाचार मिटाने आये, आग सभी ने  उगली थी !
हमने हाथ लगा के देखा , ठंडक थी अंगारों में !

दबी दबी सी वे चीखें, अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !

लोकतंत्र से आशा कम,पर ताकत है चीत्कारों में !

63 comments:

  1. कभी कभी, अपने भी, जाने क्यों, बेगाने लगते हैं !
    आज हमें ,आनंद न आये ,शीतल सुखद हवाओं में !
    यह सच है जब अपने बेगानों जैसा व्यवहार करते है तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता लेकिन कई बार दोष परस्थितियों का होता है न की अपनों का, वे अपने भी क्या जो बेगाने से लगते है ...सुन्दर रचना मन को छू गई है !

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - शुक्रवार 30/08/2013 को
    हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः9 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra

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  3. आज रहा मन उखड़ा उखड़ा,महलों के,गलियारों में !
    जी कहता है,यहाँ से निकलें, जाकर रहें गुफाओं में !
    चीजों को बदलने से बेहतर है मन को समझा जाय :)

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  4. हल्की सरसरहट के बाद धीरे-धीरे तीक्ष्णता अब किसी तुफान की ओर बढती सी लग रही है। सादर!

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  5. खूबसूरत गीत। हमेशा की तरह प्रभावशाली।

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  6. वर्तमान हालातों के दर्द को बयाँ करती हुई बहुत ही प्रभावी रचना है.

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  7. दिल का दर्द शब्दों में उतर आया है तभी तो हाथ कहते हैं

    हमने हाथ लगाकर देखा,ठंडक है
    ****निःशब्द करती अनुभूति लिए *** मेरे गीत ***

    कभी कभी, अपने भी, जाने क्यों, बेगाने लगते हैं !
    आज हमें ,आनंद न आये ,शीतल सुखद हवाओं में !

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  8. वाह...
    कभी कभी, अपने भी, जाने क्यों, बेगाने लगते हैं !
    आज हमें ,आनंद न आये ,शीतल सुखद हवाओं में !
    बेहद प्रभावशाली....

    सादर
    अनु

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  9. very beautifully written : www.freepaperbook.com

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  10. बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
    अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
    bahut sunder......sahi bhi.....

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  11. दद्दा...

    आज का गीत तो दिल से और दिल के लिए है.

    शुभकामनाएं





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  12. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
    किसी में भी ईमानदारी की आग नहीं है -बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    latest postएक बार फिर आ जाओ कृष्ण।

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  13. बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
    अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !

    गांधी तो नहीं उनके नाम पे ठगने वाले हजार निकल आएंगे आज ... दिल का आक्रोश, दर्द, क्षोभ ... सभी कुछ उकेर दिया इस रचना में ...

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  14. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !.....बेहद सुंदर सार्थक रचना....बधाई...

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  15. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !

    दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
    प्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है, आवाजों में !

    सार्थक अभिव्यक्ति
    सारे लोग इस आवाज में शामिल हो जाएँ

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  16. हालातों की टीस

    वाह जी सतीश

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  17. बेहतरीन ग़ज़ल है। खासकर चौथी, पांचवीं और छठीं शेर का तो कोई ज़वाब ही नहीं। लाज़वाब है। अंतिम शेर ने थोड़ा निराश किया। और दमदार होना चाहिए था। क्षमा सहित मैने इसे कुछ ऐसे पढ़ने का प्रयास किया-

    दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
    प्रजातंत्र अब भी जिंदा है, 'तूती' के आवाजों में।

    (नक्कारखाने में तूती का आवाज एक मुहावरा है। इसी से 'तूती' का प्रयोग किया है।)

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    1. पं.संतोष त्रिवेदी का सुझाव निम्न है ...और गौर करें !!

      प्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है चीत्कारों में !

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    2. मगर पांडे दादा हमसे बहुत आगे हैं !.....

      गज़ल के व्याकरण के अनुसार चीत्कारों या उद्गारों जैसा ही कुछ जमता है.

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  18. आशा धरें, लोकतन्त्र का शुभपहलू धीरे धीरे निकलेगा।

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  19. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !

    ...वाह...एक एक शब्द आज के यथार्थ को दिग्दर्शित करता...बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...

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  20. दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
    प्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है, आवाजों में !

    .............खूबसूरत और प्रभावशाली गीत

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  21. सही लिखा है लोकतंत्र और आज की राजनीति के बारे में ...हालात सही में अब काबू से बाहर हो चुके हैं

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  22. बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
    अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !

    आम, ख़ास और राम पार्टी, देश बचाने आयीं हैं !
    एक बार, दिल्ली पंहुचा दो,हम भी खड़े कतारों में !

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  23. सार्थक अभिव्यक्ति

    बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
    अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !

    आम, ख़ास और राम पार्टी, देश बचाने आयीं हैं !
    एक बार, दिल्ली पंहुचा दो,हम भी खड़े कतारों में !

    ReplyDelete
  24. सुन्दर प्रस्तुति-
    शुभकामनायें-

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  25. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
    अंगारों पर राख जमी है ..

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  26. प्राञ्जल प्रस्तुति । सम्यक एवम् सटीक शब्द-चयन ।

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  27. वर्तमान परिवेश पर सटीक और गहरा कटाक्ष करती रचना।
    लेकिन भाई जी यदि यह ग़ज़ल है तो मतला , मक्ता , काफिया , रदीफ़ आपसे रूठ जायेंगे ! :)

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  28. अब अंगारे ही अंगारे नही रहे, सिर्फ़ अंगारे होने का भ्रम भर रह गया है, बहुत ही सटीक चिंतन.

    रामराम.

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  29. बहुत दमदार गीत ...वाह |

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  30. बेहतरीन और सार्थक रचना...
    :-)

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  31. बहुत सुंदर गीत ..

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  32. ☆★☆★☆

    वे भी दिन थे,जब चलने पर,धरती कांपा करती थी,
    मगर आज,वो जान न दिखती,बस्ती के सरदारों में !

    कठपुतली जान के भरोसे नहीं चला करती , इशारे ही पर्याप्त हैं ...
    :) यह तो विनोदवश कहा है...

    ग़ज़ल कमाल की लिखी भ्राताश्री सतीश जी !
    पहले कैसी थी , मैंने नहीं देखी
    डॉ. दराल साहब को भी बधाई आपके साथ साथ !

    मंगलकामनाओं सहित...
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  33. बहुत शानदार प्रस्तुति, अपने समय का सच्चा हाल, आज का दिन एक थ्री स्टार होटल में गुजरा, वहाँ बड़े ब्यूरोक्रेट्स और राजनेताओं के बीच थोड़ा समय गुजरा, जो मन में सोचा, देखा कि सारे भाव आपकी कविता में उतर गये हैं।

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  34. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !

    इसीलिए अब किसी की भी सरकार हो कोई उम्मीद लगानी बेकार है ।

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  35. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
    सुन्दर प्रस्तुति !

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  36. दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
    प्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है, चीत्कारों में !
    - दबी चीत्कारें ही सिंहनाद बन जाती हैं - अब इसी की प्रतीक्षा है!

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  37. यह पारिवारिक छंद में लिखे गये इस गीत को बांचकर स्व.कन्हैया लाल नंदन की यह कविता याद आ गई:

    अंगारे को तुमने छुआ
    और हाथ में फफोला नहीं हुआ
    इतनी-सी बात पर
    अंगारे पर तोहमत मत लगाओ

    ज़रा तह तक जाओ
    आग भी कभी-कभी
    आपद्धर्म निभाती है
    और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है

    --- रचनाकार: कन्हैयालाल नंदन

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  38. पारिवारिक छंद में लिखे इस गीत को बांचकर स्व.कन्हैयालाल नंदन की यह कविता याद आ गयी:

    अंगारे को तुमने छुआ
    और हाथ में फफोला नहीं हुआ
    इतनी-सी बात पर
    अंगारे पर तोहमत मत लगाओ

    ज़रा तह तक जाओ
    आग भी कभी-कभी
    आपद्धर्म निभाती है
    और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है

    --- रचनाकार: कन्हैयालाल नंदन

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    Replies
    1. बहुत सुंदर कविता है ये नन्दन जी की

      Delete
  39. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !

    बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
    अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !

    बहुत ख़ूबसूरत और सार्थक ग़ज़ल है

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  40. चीत्कारों में कब से दम होने लगा साहब, अगर जिसको वोट देना है उनमे से ही किसी से उम्मीद नहीं है तो फिर वोट देकर भी क्या हासिल हो जाएगा :)

    भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ (,) लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !

    दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
    प्रजातंत्र से भी( ,) आशा है, दम भी है, चीत्कारों में !

    (,) यहाँ अल्पविराम नहीं लगाना चाहिए शायद .

    लिखते रहिये !

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    Replies
    1. सही कर दिया है , बेख्याली पर आपने ध्यान तो दिया साहब , आभार :)

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  41. धन्यवाद भाई जी . दो तीन शब्द बदलने से निखार आ गया है.
    बधाई सुन्दर रचना के लिए .

    ReplyDelete
  42. बहुत खूब..लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है..

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  43. बहुत ही सुन्दर रचना ।

    ReplyDelete
  44. बहुत ही सुन्दर रचना ।

    ReplyDelete
  45. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !

    क्या बात...सुन्दर रचना

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  46. क्या बात है सर , बहुत अच्छे ।
    सभी पंक्तियां बहुत ही कमाल बेमिसाल ।

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  47. बेहद प्रभावशाली...बहुत ही खूबसूरत गीत !

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  48. बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
    अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !

    यह गज़ल हमें दुष्यंत कुमार की याद दिलाती है।

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    Replies
    1. हिम्मत अफजाई के लिए आभार मनोज भाई :)

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  49. बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
    अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
    बहुत सुन्दर पंक्तियाँ .

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  50. बहुत खूब बहुत खूब बहुत खूब और बहुत खूब।

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  51. भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
    हमने हाथ लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !

    दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
    प्रजातंत्र से भी आशा है, दम भी है, चीत्कारों में !

    ये चीखें एक तुमुलनाद में बदलें ।

    बढिया गज़ल ।

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  52. इन हालात में मन को तो उखड़ना ही है ....

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एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

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