Friday, May 25, 2012

गोपाल विनायक गोडसे( Gopal Vinayak Godse ) की कुछ यादें -सतीश सक्सेना

आज अचानक लाइब्रेरी में, कुछ पुस्तकों को पलटते हुए, गोपाल गोडसे जी के द्वारा लिखी  एक किताब "गाँधी वध और मैं " के  पन्नों के बीच रखा,मुझे लिखा, उनका एक  पत्र मिल गया , वह पत्र पढ़ते हुए, उनके साथ गुज़ारा गया समय और यादें, नज़रों के सामने घूम गयीं  !
गाँधी वध से जुड़े हुए, अपने समय के अत्यंत विवादास्पद व्यक्तित्व , और  लगभग 75 वर्ष  की उम्र में उनके विचारों और विद्वता से, मैं वाकई प्रभावित हुआ था ! 
उन दिनों वे भारतीय इतिहास  व  पुरातत्व पर शोध कर रहे थे  ! वे कहते थे कि  यदि दिल्ली एवं देश के अन्य  भागों में बने किले , मीनारें,परकोटे आदि आक्रमणकारियों  ने बनवाये थे तो उनके आने से पहले, हम लोग कहाँ रहते थे और अगर हम लोगों के रहने के लिए किले आदि नहीं थे तो आक्रमणकारी  देश में किस लिए आये थे और बाद में यहीं के होकर रह गए ?
यक़ीनन हमारा देश वैभवशाली था और हमारे पास विशाल शानदार किले , उन्हें बनाने की तकनीक एवं अन्य जानकारी थी !आक्रमण कारियों ने उन भवनोंपर कब्ज़ा किया एवं उनमें अपने रहने के हिसाब से आवश्यक बदलाव किया ! उनका विचार था कि आज के किले वस्तुतः वही,बदलाव किये गए, हमारे पुरातन भवन हैं ! 
वे आगरा एवं दिल्ली के पुराने भवनों में ,पुरातन भारतीय स्थापत्य कला के चिन्ह पाकर  उत्साहित होते थे !
भारतीय स्थापत्य कला की विशेष पुरातन पुस्तकों का अध्ययन, उनका प्रिय विषय होता था
! जिन पुस्तकों की चर्चा उन्होंने मुझसे की थी उनमें "मयः मतम"  एवं "मानसार" प्रमुख थीं !
लगभग 75 वर्ष  की आयु में वे स्फूर्ति में जवानों को मात करतेथे उनके साथ घुमते हुए मैंने कम समय में जो ज्ञान अर्जित किया, वह शायद ही कभी भुला पाऊंगा  ! 
शुद्ध हिंदी भाषा का उच्चारण करते हुए, वे जब ऐतिहासिक पौराणिक काल में भारत देश का वैभव गुण गान करते थे, तो उनके पास से उठने का मन नहीं करता था  !  

प्रोफ़ेसर अली सय्यद को एक ख़त -सतीश सक्सेना

( यह ख़त प्रोफ़ेसर अली की क्लास में फेंक कर भाग लिए - हास्य  
सन्दर्भ : कुछ पिछली घटनाएं 
 संतोष त्रिवेदी : आपकी इस दार्शनिक-टाइप पोस्ट को एक बार पढके चक्कर खा गया हूँ.लोककथाएं  भी दुरूह होती हैं ? ( समझ न आने की मजबूरी  )
प्रोफ़ेसर अली सय्यद 
डॉ अरविन्द मिश्र 
प्रोफ. अली : और मैं आपकी टिप्पणी पढ़के चक्कर खा रहा हूं ..( झुंझलाहट प्रोफ़ेसर की )

संतोष त्रिवेदी : दुबारा से पढ़ा हूँ,पर पूरी तरह से समझ नहीं पाया (शालीनता और सौम्यता बच्चे की )

प्रोफ. अली : हद कर दी आपने ...( गुस्सा प्रिंसिपल सर का  )

असली बात : 

अली सर ,

आपकी कक्षा में कुछ कम पढ़े लिखे बच्चे भी " यह क्लास सबके लिए खुली है " बोर्ड देख कर अन्दर आ गए हैं !

बदकिस्मती से इन्हें अन्तरराष्ट्रीय समाज शास्त्र की छोडिये, देसी समाज की ही समझ नहीं है और अक्सर जब तब विशिष्ट विद्वानों से पिटते रहते हैं !

पिछले दिनों एक बच्चे संतोष त्रिवेदी ने, आपके शब्द न समझ आने की शिकायत कर दी थी जिसे आपने डांट कर बैठा दिया था !

उनको डांट खाते देख मैंने अपना उठाया हुआ हाथ अपने सर पर लेजाकर खुजाते हुए नीचे कर लिया था ! आपके एक विशिष्ट मित्र डॉ अरविन्द मिश्र उस बात से नाराज होकर, संतोष त्रिवेदी को मिलते ही, गरियाने लगते हैं !

उस दिन के बाद से मैंने, संतोष त्रिवेदी के साथ, आपकी क्लास रूम से दूर,आपका चित्र सामने लगा  कर, गुल्ली डंडा खेल कर, अपना समय पास करने का फैसला किया है !

पढ़े लिखों से दूर ही रहें, तभी ठीक है :)

छात्र संतोष त्रिवेदी 

Thursday, May 24, 2012

एक गुड़िया मार कहते हो कि, हम इंसान हैं ! -सतीश सक्सेना

अब हंसीं, मुस्कान  भी , 
विश्वास के लायक़ नहीं
क्या कहेंगे, क्या करेंगे
कुछ यकीं, इनका नहीं
नज़र चेहरे पर लगी है, 
ध्यान केवल  जेब पर
और कहते हैं कि  डरते क्यों ?भले इंसान हैं !

काम गंदे सोच घटिया
कृत्य सब शैतान  के ,
क्या बनाया ,सोच के 
इंसान को भगवान ने 
इनके चेहरे पर कभी , 
आती नहीं शर्मिंदगी  !
फिर भी अपने आपको कहते कि वे इंसान हैं !

बाप के चेहरे को देखो
सींग दो दिखते वहाँ !
कौन पुत्री जन्म लेगी
कंस के ,प्रासाद में !
अपनी माँ के पेट में ,
दम तोड़ देतीं बेटियां !
पूतना अब माँ बनी हैं, फिर भी ये इंसान हैं !

खिलखिलाती बच्चियों से
ही, धरा रमणीय रहती !
प्रणय और आसक्ति बिन
सृष्टि कहाँ सम्पन्न होती !
अपने बाबुल हाथ ,
मारी जा रही हैं, बच्चियां !
एक कन्या मार कर, कहते हो हम इंसान हैं !

भ्रूण हत्या से घिनौना ,
पाप क्या कर पाओगे !
नन्ही बच्ची क़त्ल करके ,
क्या ख़ुशी ले पाओगे !
जब हंसोगे, कान में गूंजेंगी 
उसकी सिसकियाँ !
एक गुड़िया मार कहते हो कि, हम इंसान हैं !

Friday, May 18, 2012

आज कहाँ से लेकर आऊँ,मीठी भाषा मीठे गीत - सतीश सक्सेना

प्यार खोजता,बचपन जिनका  
क्या  उम्मीद  लगायें  उनसे   !
जिसने घर परिवार न जाना 
क्या  अरमान जगाये उनसे  !
जो कुछ सीखा था लोगों से,
वैसी ही बन पायी प्रीत !
आज  कहाँ से लेकर आऊँ,मीठी भाषा, मीठे गीत !

कभी किसी अंजुरी का पानी
इन होंठो से कब छू  पाया  !
और किन्ही हाथों का कौरा
मेरे मुंह में कभी न आया  !   
किसी गोद में देख लाडला,
तड़प तड़प रह जाते गीत !
छिपा के आंसू,दिन में अपने,रातो रात जागते गीत !

क्यों कहते,ईश्वर लिखते ,
है,भाग्य सभी इंसानों का !
दर्द दिलाये,क्यों बच्चे को
चित्र  बिगाड़ें,बचपन का !
कभी मान्यता दे न सकेंगे,
निर्मम  रब को, मेरे गीत !
मंदिर,मस्जिद,चर्च न जाते,सर न झुकाएं मेरे गीत !

बचपन से,ही रहा खोजता 
ऐसे  ,  निर्मम  साईं  को !
काश कहीं मिल जाएँ मुझे  
मैं करूँ निरुत्तर,माधव को !  
अब न कोई वरदान चाहिए,
सिर्फ शिकायत मेरे मीत !
विश्व नियंता के दरवाजे , कभी  ना जाएँ ,  मेरे गीत ! 

प्यार का भूखा,धन की भाषा 
कभी  समझ ना पाया   था !
जो चाहा था,  नहीं मिला था  
जिसे न माँगा ,  पाया  था !
इस जीवन में,लाखों मौके , 
हंस के छोड़े, मैंने मीत  !   
धनकुबेर को सर न झुकाया, बड़े अहंकारी थे गीत !


जिसको तुमने कष्ट दिया,  
मैं, उसके साथ बैठता  हूँ !
जिससे छीना हो सब कुछ
मैं उसके दिल में रहता हूँ !
कभी समझ न आया मेरे,
कष्ट दिलाएंगे जगदीश !   
सारे जीवन सर न झुकाऊँ,काफिर होते मेरे गीत !


क्यों तकलीफें देते, उनको ,
जिनको शब्द नहीं मिल पाए  !
क्यों दुधमुंहे, बिलखते रोते ,
असमय माँ से अलग कराये !
तड़प तड़प रह जाते  बच्चे,
कौन सुनाये इनको गीत !
भूखे   पेट , कांपते पैरों ,  ये   कैसे   गा  पायें  गीत  !   

जैसी करनी, वैसी भरनी  !
पंडित ,खूब सुनाते  आये !
इन नन्हे हाथों की करनी 
पर,मुझको विश्वास न आये
तेरे महलों क्यों न पंहुचती 
ईश्वर, मासूमों की चीख !
क्षमा करें,यदि चढ़ा न पायें अर्ध्य,देव को,मेरे गीत ! 

Friday, May 11, 2012

कालिदास , रचते हैं गीत - सतीश सक्सेना

ब्लॉग जगत में, कई बार हम लोग, रचनाओं में निज दर्द उड़ेल देते हैं , जो बात अक्सर बोल नहीं पाते वह उनकी कलम , लिख देती है ! ऐसी रचनाओं पर टिप्पणी  देते समय समझ नहीं आता कि क्या सलाह दी जाए  , पति पत्नी के मध्य का दर्द पब्लिक में कहने का क्या फायदा ? बेहतर है कि दोनों बैठकर विचार करें और सोंचे कि कैसे इस बबूल वृक्ष को, घर से उखाड़ना है ! गृह युद्ध के असर से परिवार को  अवश्य बचाए रखें  !
इसी विषय पर यह रचना है .....

क्या खोया क्या पाया हमने ,
क्या छीना , इन  नन्हों   से !
क्यों न आज हम खुद से पूछें 
क्या पाया,  इन  राहों   से  ! 
बचपन की मुरझाई आँखें, 
खूब रुलाये , हमने मीत !
देख सको तो आँखें देखें ,  अपने शिशु की, मेरे गीत !

अहम् हमारे ने, हमको तो 
शक्ति दिलाई , जीने  में  !
मगर एक मासूम उम्र के,
छिने खिलौने, जीवन में ! 
इससे बड़ा पाप क्या होगा,
बच्चों से छीनी थी प्रीत !
असुरक्षा बच्चों को देकर , खूब झगड़ते, मेरे गीत !
  
हम तो कभी  नहीं हँस  पाए ,
विधि ने ही कुछ पाठ पढ़ाए  !
बच्चों का  न ,  साथ दे पाए ,   
इक  दूजे  को, सबक सिखाएं !
पाठ  पढ़ाया किसने, किसको ?
वाह वाह करते हैं गीत  !
अपने हाथों शाख काट के, कालिदास , रचते हैं गीत  !

अभी समय है, चलो खिलाएं ,
हम अपनी  मुस्कानों  को, 
तुम आँचल की छाया दे दो
मैं  कुछ  लाऊँ  भोजन को !
नित्य रोज घर उजड़े देखें ,
तड़प तड़प रह जाएँ गीत !
इतना दर्द सुनाऊं किसको , कौन समझता  मेरे गीत !

एक बार देखो शीशे में ,
खुद से ही कुछ बात करो
जीवन भर का लेखा जोखा
जोड़ के  , सारी  बात करो !
खाना पीना और सो जाना,
जीवन यही न  होता  मीत !
मरते दम तक साथ निभाएं ,कहाँ से लायें ऐसे  गीत  !

किसी कवि  की रचना देखूं !
दर्द उभरता , दिखता  है  !
प्यार, नेह  दुर्लभ से लगते ,
क्लेश हर जगह मिलता है !
क्या शिक्षा विद्वानों को दूं ,
टिप्पणियों  में, रोते गीत !
निज रचनाएँ ,दर्पण मन का, दर्द समझते मेरे गीत !

अपना दर्द किसे दिखलाते ?
सब हंसकर आनंद उठाते  !
दर्द, वहीं जाकर के बोलो ,
भूले जिनको, कसम उठाके !
स्वाभिमान का नाम न देना,
बस अभिमान सिखाती रीत ,
अपना  दर्द, उजागर करते ,  मूरख  बनते  मेरे   गीत  !

आत्ममुग्धता मानव   की  
कुछ काम न आये जीवन में !    
गर्वित मन को समझा पाना ,  
बड़ा कठिन,  इस  जीवन में !
जीवन को कड़वी बातों को,
कहाँ  भूल पाते हैं गीत  !
हार और अपमान याद कर, क्रोध  में आयें मेरे गीत !

सारे जीवन की यादें ही 
अक्सर साथ निभाती हैं  !
न जाने कब डोर कटे,
कमजोर सी पड़ती जाती है !
एक दिवस तो जाना ही है,
बहुत लिख लिए हमने गीत !
जिसको मधुर लगे वे गाएँ ,चहक चहक कर मेरे गीत

तेरी ऐसी याद कि  मेरी हर,
चिट्ठी बन गयी , कहानी  !
जिसे कलम ने, तुझे याद कर
लिखा ,वही बन गयी रुबाई !
लगता जैसे महा काव्य का,
रूप ले रहे मेरे गीत !
धीरे धीरे तेरे दिल में, जगह बनाएं मेरे गीत  !

कौन हवन को पूरा करने
कमल, अष्टदल लाएगा  ?
अक्षत पुष्प हाथ में लेकर
कौन साथ  में   गायेगा  ?
यज्ञ अग्नि में समिधा देने,
कहीं से आयें मेरे मीत !
पद्मनाभ  की स्तुति करते  , आहुति देते मेरे गीत  !

( अभी कुछ देर पहले अरुण चन्द्र राय ने सूचना दी कि  "मेरे गीत " का प्रकाशन हो गया है , पुस्तक छप  चुकी है ) निस्संदेह मेरे लिए यह एक अच्छी  खबर है ! आप सब पाठक और ब्लोगर साथियों ने जो हौसला दिया उसी कारण , मेरी रचनाएं छपने लायक बन पायीं है ! 
आप सभी का आभार !     

लगें नाचने मेरे गीत - सतीश सक्सेना

जबसे तुमने गीत न गाये ,
तब से पीर और भर आई !
भरी दुपहरी, रूठ गयी हो ,
जैसे पाहुन से  अमराई !
सुबह सबेरे, देख द्वार पर, 
भौचक्के हैं मेरे गीत !
चेहरे पर मुस्कान देख कर,ढोल बजाते मेरे गीत !

रोज रात में कहाँ से आती 
मुझे सुलाने,  त्यागमयी !
साधारण रंग रूप तुम्हारा  
हो  कितनी आनंदमयी  ?
बिन तेरे क्यों नींद न आये,
तुम्ही बताओ,मेरे मीत  !
आहट पा, रजनीगंधा की , लगें  नाचने  मेरे  गीत !

मैंने कब बुलवाया तुमको 
अपने जख्म दिखाने को !     
किसने अपना दर्द बांटना ,
चाहा , मस्त हवाओं  को  ! 
मुझे तुम्हारे न मिलने से, 
नहीं शिकायत मेरे मीत  !
जब भी याद सुगन्धित होती, चित्र बनाते मेरे गीत ! 

कभी याद आती है मुझको 
उन रंगीन फिजाओं की  !
तभी याद आ जाती मुझको
उन सुरमई निगाहों की  !
प्रथम बार देखा था जिस दिन, 
ठगे रह गए मेरे गीत ! 
जैसे तुमने नज़र मिलाई , मन गुदगुदी मचाएं गीत !

आज अकेला भौंरा देखा ,
धीमे धीमे,  गाते  देखा !
काले चेहरे और जोश पर 
फूलों को, मुस्काते देखा !    
खाते पीते केवल तेरी,
याद दिलाएं ,ये  मधु गीत  !
झील भरी आँखों में कबसे, डूब चुके हैं ,मेरे गीत ! 

रत्न जडित आभूषण पहने,   
नज़र नहीं रुक पाती   है  !
क्या दे,तुझको भेंट सुदामा
मेरी व्यथा , सताती  है  !
रत्नमयी को क्या दे पाऊँ , 
यादें  लाये, मेरे गीत !  
अगर भेंट स्वीकार करो तो,धूम मचाएं, मेरे गीत ! 

कैसे बंजर में, जल  लायें  ?   
हरियाली और पंछी आयें ?
श्रष्टि सृजन के लिए जरूरी, 
जल को,रेगिस्तान में लायें ! 
आग और पानी  न  होते ,
कैसे  बनते , मेरे गीत  !
तेरे मेरे युगल मिलन पर,सारी रात  नाचते गीत !

अपने घर की तंग गली में !
मैंने कब  चाहा  बुलवाना  ?
जवां उमर की उलझी लट को
मैंने कब  चाहा,  सुलझाना   ?
मगर मानिनी आ ही गयी अब, 
चरण तुम्हारे ,धोते गीत !
स्वागत करते,निज किस्मत पर, मंद मंद मुस्काते गीत !

बिन 
 बोले ही , बात करेंगे ,
बिना कहे ही,सब समझेंगे
आज निहारें, इक दूजे को, 
नज़रों से ही , बात करेंगे !
ह्रदय पटल पर चित्र  बनाएं , 
मौका पाते,  मेरे गीत !
स्वप्नमयी  को घर में पाकर ,आभारी हैं ,मेरे गीत !

कैसे बिना तुम्हारे, घर में
रचना  का श्रंगार कर सकूं
रोली,अक्षत हाथ में लेकर
छंदों का सत्कार कर सकूं
अभिव्यक्ति स्वागत में द्वारे ,
ढफली लेकर आये गीत !
सिर्फ तुम्हारे ही हाथों में , प्यार से  सौंपे, मैंने  गीत  !

Wednesday, May 9, 2012

जीवन भर मुस्काये गीत - सतीश सक्सेना

जीवन भर मैं रहा अकेला  
कहीं  हथेली, न  फैलाई  ! 
गहरे  अन्धकार के  रहते  ,  
माँगा कभी दिया न बाती
कभी न रोये मंदिर जाकर ,
सदा मस्त रहते थे गीत !
कहीं किसी ने, दुखी न देखा, जीवन भर मुसकाए गीत !

कितने लोग मिले जीवन में 
जिनके पैर पड़े  थे,  छाले !
रोते थे हिचकी,  ले लेकर
उनको  घर में दिए सहारे !
प्यार न जाने, यार ना माने,
बड़े लालची थे वे मीत ! 
घायल हो होकर  पहचानें  , गद्दारों  को मेरे गीत  !

रूप गर्विता, जहर बुझे ये  
तीर चले ,  आक्षेपों   के  !
किस रंजिश से पागल हो, 
पर, नोचे एक कबूतर के  ?  
अभी से क्यों घबराए दिखते,
पाप सदा करता भयभीत  !
कहाँ सुरक्षा  तुम  पाओगे ,  पीछा   करते , मेरे गीत  !

चार दिनों का जीवन लाये  
खूब  अकड़ते   घूम रहे  ! 
चंद  तालियों  को सुनकर 
ही खुद को राजा मान रहे !
प्रजा समझ कर जिसे रुलाया,
वही करेगी तुमको  ठीक !
कुछ  वर्षों के  बाद तुम्हीं पर, खूब  हँसेंगे   मेरे   गीत  !

दम भरते हो धर्मराज का 
करते काम कसाई   का !
पूरे दिन, मृदु वचन सुनाओ  
रात को नशा, शराबी का !
कुछ दिन में जनता सीखेगी,
ध्यान से पढ़ना मेरे गीत !
बड़ी दुर्दशा तुम झेलोगे , जिस  दिन जागें मेरे गीत  !

जब जब  मेरा  घोंसला  
नोचा, घर के पहरेदारों ने 
तब तब आश्रय दिया मुझे 
कुछ हंसों के  दरवाजे ने  !    
बच्चों तक ने सेवा की थी,
जब मुरझाये थे ये गीत !
कभी न वे दिन भुला सकेंगे, कर्ज़दार हैं मेरे गीत !

याद मुझे अपमान, अश्रु का
जिसे देख, कुछ लोग हँसे थे
सिर्फ तुम्हारी ही आँखों से ,
दो दो आंसू , साथ बहे थे  !
उन्हीं  दिनों लेखनी उठी थी,
अश्रु पोंछ कर, लिखने गीत !
विश्वविजय का निश्चय करके, निकले दिल से मेरे गीत !

दावानल के समय हमेशा 
रिमझिम बारिश होती है !  
जलती लपटों के समीप
जल भरी गुफ़ाएँ होती हैं !
शीतल आश्रय आगे आते,
जब जब झुलसे  मेरे  गीत !
चन्दन लेप लगा ममता ने, खूब सुलाए, घायल गीत !

हर खतरे में साथ रहे थे,
हर आंसू में साथ खड़े थे
जब भी जलते तलुए मेरे
तुमने अपने हाथ रखे थे !
ऐसे लोगों के कारण ही ,
जीवन में लगता  संगीत  !
इनकी धीमी सी आहट से , निर्झर झरते मेरे गीत !

धोखे की इस दुनिया में  ,
कुछ  प्यारे बन्दे रहते हैं !
ऊपर से साधारण लगते
कुछ दिलवाले रहते हैं  !
दोनों  हाथ  सहारा देते ,  जब भी ज़ख़्मी देखे गीत  !
अगर न ऐसे कंधे मिलते, कहाँ  सिसकते मेरे गीत  !
  

Tuesday, May 8, 2012

काश कहीं से मना के लायें , मेरी माँ को , मेरे गीत ! - सतीश सक्सेना

सबसे पहला गीत सुनाया
मुझे सुलाते , अम्मा ने !
थपकी दे दे कर बहलाते
आंसू पोंछे , अम्मा ने !
सुनते सुनते निंदिया आई,
आँचल से निकले थे गीत !
उन्हें आज तक भुला न पाया, बड़े मधुर थे मां के गीत !

आज तलक वह मद्धम स्वर
कुछ याद दिलाये कानों में !
मीठी मीठी लोरी की धुन,
आज भी आये, कानों में !
आज मुझे जब नींद न आये,
कौन सुनाये ,आकर गीत ?
काश कहीं से मना के लायें , मेरी माँ को , मेरे गीत !

मुझे याद है ,थपकी देकर,
माँ अहसास दिलाती थी !
मधुर गुनगुनाहट सुनकर
ही, आँख बंद हो जाती थी !
आज वो लोरी उनके स्वर में,
कैसे गायें मेरे गीत !
कहाँ से लाऊं उस थपकी को, माँ की याद दिलाते गीत !

अक्सर पेन पेन्सिल लेकर
माँ कैसी थी ?चित्र बनाते,
पापा इतना याद न आते
पर जब आते, खूब रुलाते !
उनके गले में, बाहें डाले ,
खूब झूलते , मेरे गीत !
पिता की उंगली पकड़े पकड़े ,चलाना सीखे मेरे गीत !

पिता में बेटा शक्ति ढूंढता
उनके जैसा कोई न देखा !
भय के अंधकार के आगे
उसने उनको लड़ते देखा !
वह स्वरुप, वह शक्ति देखकर,
बचपन से ही था निर्भीक !
शक्ति पुरुष थे , पिता हमेशा, उन्हें समर्पित मेरे गीत !

राम रूप कुछ विद्रोही थे ,
चाहे कुछ हो सर न झुकाएं
कुछ ऐसा कर पायें जिससे
घर में उत्सव रोज मनाएं !
सदा उद्यमी, जीवन उनका,
रूचि रहस्यमय, निर्जन गीत !
कभी कभी मेरे जीवन में, वे खुद ही लिख जाते गीत !

शक्ति पिता से पायी मैंने,
करुणा पायी माता से !
कोई कष्ट न पाए मुझसे ,
यह वर मिला विधाता से !
खाली हाथों आया था मैं ,
भर के गगरी छोड़े गीत !
प्यासे पक्षी, बया, चिरैया सबकी प्यास बुझायें गीत !

क्या मैं तुमसे करूं शिकायत
प्यास नहीं बुझ पाएगी !
क्या जीवन भर खोया पाया
उम्र फिसलती जायेगी !
जितना जिया, खूब पाया है,
खूब हंस लिए मेरे गीत !
मस्ती के अनंत सागर में, जी भर गोते खाते गीत !

जीवन की वे भूलें मेरी ,
याद आज भी आती है !
भरी डबडबाई, वे ऑंखें ,
दिल में कसक जगाती हैं !
जीवन भर के बड़े वायदे,
सपने खूब दिखाएँ गीत !
भुला के वादे, निश्छल दिल से, शर्मिन्दा हैं, मेरे गीत !

याद मुझे, वे निर्मल बातें ,
बचपन याद दिलाती बातें
दिवा स्वप्न जो हमने देखे
बिखर गए, भंगुर शीशे से !
जीवन भर के कसम वायदे,
नहीं बचा पाए थे गीत !
अब क्यों रोये मनवा मेरा, मदद नहीं कर पायें गीत !

बहुत दिनों से, बोझिल है
मन, कर्जा चढ़ा मानिनी का !
चलते थे, भारी मन लेकर
मन में बोझ, संगिनी का !
दारुण दुःख में साथ निभाएं, 
कहाँ आज हैं ऐसे मीत !
प्यार के क़र्ज़े उतर ना पायें , खूब जानते मेरे गीत !

जीवन की कड़वी यादों को
भावुक मन से भूले कौन ?
जीवन के प्यारे रिश्तों मे
पड़ी गाँठ, सुलझाए कौन ?
गाँठ पड़ी, तो कसक रहेगी,
हर दम चुभता रहता तीर !
जान बूझ कर, धोखे देकर, कैसे नज़र झुकाते गीत !

पता नहीं कुल साँसें कितनी
हम खरीद कर , लाये हैं !
कल का सूरज नहीं दिखेगा
आज समझ , ना पाए हैं !
भरी वेदना मन में लेकर ,
कैसे समझ सकोगे प्रीत !
मानव मन फिर चैन न पाए, जीवन भर अकुलायें गीत !

Monday, May 7, 2012

मदारी बुद्धि -सतीश सक्सेना

                   विलक्षण बुद्धि मदारी के लिए ,मन्त्रमुग्ध होकर सुनने वाली भीड़ जुटानी आसान है !और अक्सर मदारी अपना उद्देश्य तय कर चुके होते हैं !उसे पता है कि सीधे साधे  श्रद्धानत होकर सुनने वाले लोगों से फायदा उठाना आसान है !

                  ऐसे मजमें, हमारे देश में ही नहीं, विदेशों में भी लगते देखे गए हैं !अक्सर कुछ समय बाद, सीधा साधा इंसान अपने आपको ठगा महसूस करता है ! इन्सान को भावनात्मक तौर पर ठगा जाना ,शायद सबसे आसान है सदियों से शैतान, और अब दुशाला ओढ़े, इंसान रूप में शैतान,रोज इसका फायदा उठाते देखे जा सकते हैं !आज हमारे देश में ऐसे स्वामियों की भीड़ है और हम लोग विवश होकर देखने सुनने को मजबूर हैं !

पहन फकीरों जैसे कपडे
परम ज्ञान की बात करें
वेद क़ुरान,उपनिषद ऊपर 
रोज नए व्याख्यान करें,
गिरगिट को शर्मिंदा करते हुनर मिला चतुराई का !
बड़ी भयानक शक्ल छिपाए रचते ढोंग फकीरी   का !

                 विश्व में सर्वाधिक अशैक्षिक लोगों के इस देश में, आज भी 90% लोग ग्रेजुएट डिग्री नहीं ले पाए हैं ! बचपन से पुरातन पुस्तकें पढ़कर, गुरु का सम्मान करना सीखे हम लोग, गुरुओं की पहचान भूल गए हैं ! आज हमें सौम्य मुद्रा में कुरता पायजामा, और धवल दुपट्टा डाले, मधुर आवाज में बोलता हर व्यक्ति, गुरु श्रद्धा के लायक लगता है !
                           सीधे साधे और अनपढ़ लोगों की श्रद्धा के साथ मज़ाक का, विश्व में सबसे बड़ा उदाहरण है जिसको हमारे देश में जम कर भुनाया जा रहा है ! "गुरु बिन मोक्ष नहीं " में भरोसा करने वाले हम लोग ,गुरु की तलाश में टीवी पर आसानी से अपनी पसंद के गुरु को चुन सकते हैं !लगभग हर न्यूज़ चैनल पर चलते प्रवचन श्रद्धा के साथ ग्रहण किये जाते हैं !सुबह सुबह किसी भी चैनल पर यह मनोहर गुरुजन शिष्यों से समस्याओं से मुक्ति के उपाय बताते मिलते हैं जिन्हें हमारे प्रथम गुरु (माताएं) बड़े लगन से ग्रहण करती हैं! बिना किसी विशेष शिक्षा और परिश्रम के, गुरु बनकर लोगों के दिल दिमाग पर छा जाना बेतहाशा फायदे का सौदा है !
                             अभी हाल में मेरे एक परममित्र जो भारत सरकार में कार्यरत हैं , ज्योतिष का एक कोर्स करने के बाद से टीवी पर आने में सफल रहे हैं और वे अब नौकरी छोड़ने की सोंच रहे हैं !
                           श्रद्धा और धर्म से जुड़े इन व्यवसाओं में सीधे साधे धर्म भीरु लोग न फंसे इसका कोई उपाय नहीं दिखता , शिक्षा और समझ का प्रसार इतना आसान नहीं हैं ! लोकतंत्र का दुरुपयोग और सरकारी तंत्र का बड़े फैसले करने का साहस न कर पाना, देश को आगे बढ़ने से रोकने में कामयाब होगा !

                       मैं निराश हूँ कि शायद ही मैं अपने जीवन काल में एक स्वस्थ लोकतंत्र देख पाऊंगा , लंगड़े लोकतंत्र जिसमें सही को सही कहने का साहस न हो , को सहना हमारी नियति रहेगी !

Friday, May 4, 2012

आओ बच्चो मिल कर के ये कसम उठानी है - सतीश सक्सेना

कल ज्योतिपर्व प्रकाशन के डिज़ाईनर अबनीश ने मेरे गीत पर काम करते करते , मुझे बताया कि उन्हें गीतों का गहरा शौक है ,एक बार पिता के कहने पर उन्होंने चार लाइने लिख कर एक मंच पर सुनाई थी , पहली लाइन "शीर्षक " सुनकर, अवनीश के अनुरोध पर यह रचना की गयी , आओ बच्चो मिलकर के इक कसम उठानी है " पर लिखी इस रचना को महसूस करें !

एक रंग है सबके अन्दर  
एक   सा  भोजन  पायें  !  
एक पिता है सबके अंदर
तब क्यों नज़र झुकाएं  !
फिर क्यों  ऊँच नीच 
समझाती,राम कहानी है !
आदि ग्रन्थ बदले स्वारथबस , यही कहानी है  !

कमजोरों को प्यार करेंगे 
साथ बैठकर  बात करेंगे 
कष्ट दूसरों का समझेंगे  !
एक  साथ खाना खायेंगे  !
और आक्रमणकारी  को  
इक  सीख  सिखानी है 
आओ बच्चो मिलकर के, इक कसम उठानी है !

अपनी माँ  की इज्ज़त जैसी 
महिलाओं की  इज्ज़त होगी 
जैसी अपनी बहिन सुरक्षित 
और सभी की करनी होगी  !
प्रथम सुरक्षा  उनकी , 
जिनकी भीत पुरानी है !
आओ बच्चों मिलकर के ,एक प्रीत जगानी है !  

थके चरण कमजोर पड़े हैं !
हम बच्चों के लिए चले हैं ,
हाथ थक गए मेहनत करते 
हमको मंजिल पर पंहुचाते  
कसम तुम्हे इन छालों की,
बस आस जगानी है !
नेह दिया, मृदु बाती  से , एक ज्योति जगानी है  !

Thursday, May 3, 2012

कैसी है, पहचान तुम्हारी -सतीश सक्सेना

दिल  की परतों में सोये हो ,
लगते तो कुछ अपने जैसे 
मन में इतने गए समाये  
तुम्हें छिपायें बोलो कैसे ,
जबसे तुमको देखा मैंने 
पलकें अपनी बंद रखी हैं !   
कौन जान पायेगा तुमको,कैसी है पहचान तुम्हारी !

जब भी आये, द्वार तुम्हारे !
तुम छिप गए लाज के मारे 
आखें खोज रही तुमको ही 
कब से देखो, बिना सहारे !
बरसों बीते बिन देखे ही ,
कैसी है ? यह प्रीत  हमारी   !
लोकलाज वश  कहाँ छिपायीं,तुमने मेरी प्रेम निशानी  !

अभी कुछ दिनों पहले तुमने 
प्रणय गीत कुछ गाये तो थे 
पीड़ा मेरी कुछ सुनकर ही  
आँख, अश्रु भर आये तो थे !  
मुझे ख़ुशी है उस घटना की,
तुमको भी है याद पुरानी !    
कौन समझ पायेगा जग में,मेरी तेरी अमर कहानी  !

Related Posts Plugin for Blogger,