Saturday, December 17, 2011

अब शब्दों की जिम्मेदारी -सतीश सक्सेना


पिछली पोस्ट में प्रवीण पाण्डेय की टिप्पणी पढ़कर देखता ही रह गया ...
"मैंने तो मन की लिख डाली, 
अब शब्दों की जिम्मेदारी  ! "और उनको एक पत्र लिखा ...
प्रवीण भाई,
आपकी दी हुई उपरोक्त दो लाइने अच्छी लगी हैं ! इस गीत को आगे पूरा करने का दिल है ...इजाज़त दें तो  ... :-) 
और जवाब तुरंत आया ....
आपको पूरा अधिकार है, निश्चय ही बहुत सुन्दर सृजन होगा, कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं मैने भी पर भाव अलग हैं। प्रतीक्षा रहेगी आपके गीत की। सादर ,   प्रवीण
प्रवीण पाण्डेय,मेरी नज़र में बहुत ऊंचा स्थान ही नहीं रखते अपितु उनकी रचनाओं से हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है ! हिंदी भाषा का यह सौम्य सपूत वास्तव में बहुत आदर योग्य है ! 
उनके प्रति आभार के साथ, इस रचना का आनंद लें ...अगर आप लोग आनंदित हुए तो रचना सफल मानी जायेगी !

रचनाकारों की नगरी में 
मैंने कुछ रंग लगाये हैं 
अंतर्मन से ही नज़र पड़े 
ऐसे  अरमान जगाये हैं  !
मानवता गौरवशाली हो 
तब झूम उठे, दुनिया सारी !
मैंने तो मन की लिख डाली, अब शब्दों की जिम्मेदारी  !

ये शब्द ह्रदय से निकले हैं 

इन पर न कोई संशय आये
वाक्यों  के अर्थ बहुत से हैं,
अपने  भावों से पहचानें !
मैंने तो अपनी रचना की , 
हर पंक्ति तुम्हारे नाम लिखी !
जाने क्या अर्थ निकालेगी, इन छंदों का,  दुनिया सारी !

असहाय, नासमझ जीवों  की 

आवाज़ उठाना लाजिम है !
मानव की कुछ करतूतों से  
आवरण उठाना वाजिब है !
पाशविक प्रवृत्ति का नाश करे,
मानवता हो, मंगल कारी
इच्छा है, अपनी भूलों को , स्वीकार करे दुनिया सारी !

जिस तरह  प्रकृति का नाश ,

करें खुद ही मानव की संताने
फल,फूल,नदी,झरते झरने
यादें लगती, बीते  कल  की  !
गहरा प्रभाव छोड़े अपना , 
कुछ ऐसी करें कलमकारी !
प्रकृति की अनुपम रचना का, सम्मान करे दुनिया सारी !

मृदु भावों का अहसास रहे ,

पिछली पीढ़ी का ध्यान रहे
बचपन से, मांगे  मुक्त हंसी
स्वागत सबका, सम्मान रहे !
दुश्मनी रंजिशें भूल अगर,
झूमेगी तब महफ़िल सारी !
यदि गैरों की भी पीड़ा का ,अहसास करे दुनिया भारी !

बच्चों को  टोकें , हंसने से !

कलियों को रोकें खिलने से
हर हृदय कष्ट में आ जाता 
आस्था पर प्रश्न उठाने से !
क्रोधित मन, कुंठाएँ पालें, 
ये बुद्धि गयी  कैसे मारी ! 
गुरुकुल की, शिक्षाएँ भूले , यह कैसी है पहरेदारी !

कुछ ऐसा राग रचें मिलकर

सुनकर उल्लास उठे मन से
कुछ ऐसा मृदु संगीत  बजे 
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
यदि गीतों में  झंकार न हो,
तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी  !
हर रचना के मूल्यांकन में इन शब्दों की जिम्मेदारी !

Thursday, December 15, 2011

बस यही कहानी जीवन की -सतीश सक्सेना

"निराशावादी द्रष्टि पालने वालों की यहाँ कमी नहीं और यही प्रवृत्ति मानवीयता को पीछे धकेलने में कामयाब है !
ऐसे लोग ब्लॉग जगत में लिखी रचनाओं के अर्थ, तरह तरह से लगाते हैं ,कई बार अर्थ का अनर्थ बनाने में कामयाब भी रहते हैं  !"
                          कुछ दिन पहले, अली साहब से उपरोक्त विषय पर, लगभग आधा घंटे बात होने के बाद,अविश्वासी और निराशाजन्य स्वभावों पर हुई बातचीत के फलस्वरूप, इस लेख की प्रेरणा मिली !
                         रचना लिखते समय लेखक की अभिव्यक्ति, विशिष्ट समय और परिस्थितियों में, तात्कालिक  मनस्थिति पर निर्भर करती हैं और पाठक  उसे अपनी अपनी द्रष्टि, और बुद्धि अनुसार पारिभाषित करते हैं  !
                        अगर लेखक की कथनी और करनी में फर्क नहीं है तो वह  किसी भी काल में रचना करे , रचना के मूल सन्देश में फर्क नहीं होगा ! उसकी रचनाएँ उसके चरित्र  और व्यवहार का आइना है , जिन्हें पढ़कर लेखक को आसानी से समझा जा सकता है ! अधिकतर ईमानदार लेखकों  के विचार समय अनुसार बदलते नहीं हैं , अगर एक लेखक , विषय विशेष से परहेज करते हुए पाठकों की नज़र से,कुछ  छिपाना चाहता है तो सतत लेखन फलस्वरूप, कभी न कभी, आवेग में वह,उन्हें व्यक्त कर ही देगा ! 
                       लेखक के अर्थ और उद्देश्य के सम्बन्ध में रमाकांत अवस्थी जी ने इन लोगों से कहा था ....
" मेरी रचना के अर्थ,  बहुत से हैं...
जो भी तुमसे लग जाए,लगा लेना "
                      समाज के ठेकेदारों के मध्य प्रसारित, फक्कड़ लोगों की रचनाएँ, अक्सर नाराजी का विषय बन जाती हैं ! अर्थ का अनर्थ समझने वालों की चीख पुकार के कारण , नाराज लोगों की संख्या  भी खासी रहती है , ऐसों को कैसे समझाया जाए , वाद विवाद छेड़ने की मेरी आदत कभी नहीं रही अतः यही कह कर चुप होना उचित है ...  

कैसे बतलाएं कब मन को ,
अनुभूति हुई वृन्दावन की 
बस कवर पेज से शुरू हुई , 
थी, एक कहानी जीवन की ! 
क्या मतलब बतलाऊँ तुमको,
जो चाहे अर्थ लगा लेना !
संकेतों से इंगित करता, बस  यही कहानी जीवन की !

जो प्यार करेंगे, वे  मुझको 
सपनों में भी, दुलरायेंगे ! 
जिनको अनजाने दर्द दिया 
वे पत्थर ही , बरसाएंगे  !
इन दोनों पाटों में पिसकर,
जीवन का अर्थ लगा लेना !
स्नेह,प्यार,ममता खोजे, बस यही  कहानी जीवन की  !

कुछ लोग देखके खिल उठते 
कुछ चेहरों पर रौनक  आती  
कुछ तो पैरों की आहट का ,
सदियों से इंतज़ार  करते   !
तुम प्यार और स्नेह भरी,
आँखों  का अर्थ लगा लेना !
मेरी रचना के मालिक यह,बस यही कहानी जीवन की

कब जाने दुनिया ममता को ?
पहचाने दिल की क्षमता को 
हम दिल को कहाँ लगा बैठे ?
कब रोये, निज अक्षमता पर ?
तुम मेरी कमजोरी का भी, 
जो  चाहे  अर्थ लगा लेना  !
हम जल्द यहाँ से जाएँगे , बस यही कहानी जीवन की !

कैसे जीवन को प्यार करें ? 
क्यों हम ऐसा व्यापार करें
अपमान जानकी का करते 
आंसू की कीमत भूल गए ? 
भरपूर प्यार करने वाले , 
अंदाज़ तुम्हारा क्या जाने
वे नम, स्नेही ऑंखें ही , कह रही कहानी जीवन की !

तुम ही तो भूल गए हमको 
हम भी कुछ थके, इरादों में 
फिर भी तेरी इस नगरी  में, 
हँसते हँसते ,दुःख भूल गए !
गहरे  कष्टों में साथ रहे ,
जो  हाथ  इबादत में उठते !
मेरे निंदिया के मालिक ये ,बस यही कहानी जीवन की !

Saturday, December 10, 2011

श्रद्धा -सतीश सक्सेना

जाकी रही भावना जैसी , 
प्रभु मूरत देखी तिन तैसी....

तुलसी दास  की यह लाइनें, हम सबको इस विषय की गूढता समझाने के लिए काफी हैं ! सामजिक परिवेश में , इस का नमूना, लगभग हर रोज दिखाई देता है ! पूरी श्रद्धा के साथ ध्यान और आवाहन, किसी भी समय, किसी भी स्थिति में करें ,परमेश्वर का प्रत्यक्ष अहसास आपको उसी क्षण होगा !
परिवार में भली भांति एक दूसरे को समझने का  दावा  करने वाले हम लोग, शायद ही कभी पूर्वाग्रह रहित होकर,अपनों के बारे में, सही राय कायम कर पाते हों ! 

पत्थर की बनायीं एक मूर्ति, चाहे राम की हो या केशव की , मनचाहा फल देने में समर्थ है बशर्ते कि इस कामना में श्रद्धा शामिल हो ! रावण परम विद्वान था, यह बात मर्यादा पुरषोत्तम, महा शत्रुता के बाद भी नहीं भूले थे , मरते समय,एक आशा के साथ लक्ष्मण को आदेश दिया था कि अंतिम समय गुरु रावण से कुछ ग्रहण करने का प्रयत्न अवश्य करें !
साधारण से सरकारी कर्मचारी  नेकचंद ( बाद में पद्मश्री से विभूषित ) को कूड़े के ढेर में ऐसी सुन्दरता नज़र आई कि उसने भारतीय शिल्पकला की झलक लिए पूरा पार्क ही रच दिया और विश्व ने उसे कला का एक नायाब नमूना माना ! सकारात्मक, आशावादी स्वभाव  का यह उदाहरण ,विश्व में दुर्लभ है  ! काश हम सबको  ऐसी नज़र मिल पायें !
अपने आपको ब्रह्माण्ड का सबसे विद्वान मानने की भूल, एवं अपनों पर अविश्वास , अक्सर अर्थ का अनर्थ करवाने के लिए पर्याप्त है !

Thursday, December 1, 2011

भीड़ चाल -सतीश सक्सेना

              संसार का शायद ही कोई आदमी ऐसा होगा जो अपने आपको कम अक्ल मानता होगा , हमारे देश में सामान्यतः यह कमी कहीं नज़र नहीं आती बल्कि बहुतायत ज्ञान सिखाने वालों की है ,जो हर गली कूंचों में बिखरे पड़े हैं !
              मगर विकिपीडिया  कुछ और ही कहती है , सन २००८ के आंकड़ों को देखें तो,  उसके हिसाब से २५ प्रतिशत लोग अभी भी अनपढ़ हैं तथा  मात्र १५ % भारतीय छात्र हाई स्कूल एवं ७ % ग्रेजुएट बन  पाते हैं  ! महिलाओं में स्थिति पुरूषों के मुकाबले और अधिक ख़राब है ! 
              आधुनिक भारतीय समाज के पास मनोरंजन का साधन , और दुनिया से जुड़े रहने के लिए टेलीविजन एक मात्र माध्यम है और उस पर दिखाई गयी बातों पर गहरा विश्वास करते हैं ! आज भी अक्सर शर्त लगाने पर जीत अक्सर उसकी  होती है, जो प्रमाण स्वरुप , उसे लिखा हुआ कहीं दिखा दे ! चाहे लिखा किसी भ्रष्ट बुद्धि ने ही हो :-) 
              अक्सर पूंछा जाता है कि कहाँ लिखा है ...?  दिखाओ तो जाने ? से हमारी लेखन और लेखक के प्रति आस्था का पता चलता है ! 
              ऐसी परिस्थिति में , नोट कमाने के लिए मार्केट में उतरे , टेलीविजन कैमरा और उनके लिए ढोल बजाते नगाडची , भारतीय  भीड़ को अपनी सुविधानुसार, राह दिखाने में खूब कामयाब हो रहे हैं !

          आम जनता के नाम पर, टीवी कैमरे के सामने खड़े, एक सामान्य घबराए व्यक्ति से, मनचाहे शब्द बुलवाकर , हर न्यूज़  को  अपने मन मुताबिक़ शक्ल देकर, आम जनता को भ्रमित करना, राष्ट्रीय अपराध होना चाहिए !   
          पूरे राष्ट्र को, सरेआम बेवकूफ बनाते, मीडिया के इन धुरंधरों के खिलाफ, कोई कानून नहीं है  !
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