Monday, May 26, 2008

ज्यों ज्यों बीते समय तुम्हारी याद सताती रे ..


सुख और दुख जीवन के दो पहलू हैं जो हम सबको भोगने पड़ते हैं ! ऐसे ही एक अपार कष्ट के समय रोते हुए एक कविता लिखी गई, जो उस अभिशप्त दिन (१० नवम्बर १९८९ ) के बाद, मैं कभी पूरी पढ़ नहीं पाता !
उस दिन ऐसा लगा था कि अब हम कैसे जी पाएंगे, मगर दुनिया किसी के जाने के बाद कभी नही रूकती और हम आज भी सब जी रहें हैं ! शायद यही जीवन की रीति है !



ज्यों ज्यों बीते समय 
तुम्हारी याद सताती रे !
इस बगिया के पेड़ 
तड़पते याद तुम्हारी में !
कहाँ हो माली आ जाओ  ....

पशु कबूतर पक्षी पौधे 
सब कुम्हलाये हैं !
तड़प कर तुम्हे बुलाते हैं !
चले न मुख मे कौर ,
तुम्हारी याद सताये रे !

जितने पेड़ लगाये तुमने,
झूम रहे थे सब मस्ती में
इस हरियल बगिया में , 
किसने आग लगाई रे !
सबसे ऊँचा पेड़ गिरा ! 
सन्नाटा छाया रे......

इस बगिया में जान तुम्हारी
फिर क्यों रूठे इस उपवन से
किस पौधे से भूल हुई ,
कुछ तो बतलाओ रे !
सारे प्यासे खड़े ! 
कहीं से माली आओ रे

तुमने सबसे प्यार किया था
तन मन धन सब दान दिया था
बदला चाहा नहीं किसी से !
फिर क्यों रूठे इस आँगन से
सबसे प्यारी बेटी  सिसके  ! 
याद तुम्हारी में .....

हर आँगन से तुम्हे प्यार था
भूले बिसरे रिश्ते जोड़े !
कई घरों में खुशिया बांटी
अपने दुःख का ध्यान नहीं था
कल्पवृक्ष अवतार ! यहाँ दावानल आई रे ....

श्री राम - सतीश सक्सेना

भरत भूमि में आज लुट रही मर्यादा श्रीराम की !
जाति पांति और भेदभाव
के नाम चढ़े भगवान भी
नास्तिक आज बचाने जाते जन्मभूमि श्रीराम की !

राजनीति के लिए ख़रीदे
जाते हैं भगवान भी
रामनाम को बेच रहे हैं धर्म के ठेकेदार भी !

अन्तिम सच को भूल
फिरें इतराते झूठी शान में
धर्म आड़ में लेकर लड़ते क़समें खाते राम की !

मानवता की बली चढाते
सीना ताने खून बहाते
रक्त होलिका खेलें, फिर भी गाते महिमा राम की !

दिल में घ्रणा समेटे मन
में बदले की भावना लिए
राज्यपिपासु खोजने जाते, जन्मभूमि श्रीराम की !

परमपिता परमात्मा की भी
जन्मभूमि सीमित कर दी
मां शारदा निकट नही आईं, करते बातें ज्ञान की !

प्राणिमात्र पर दया, धर्म
सिखलाता बारम्बार है
पवनपुत्र के शिष्य, लुटाते मर्यादा श्रीराम की !

Saturday, May 24, 2008

मृगतृष्णा -सतीश सक्सेना

किशोरावस्था में देखे एक स्वप्न पर आधारित थी,एक रचना जो बरसों पहले लिखी गयी थी, दैवीय शक्ति के आगे बैठा हुआ, अपने लिए एक परी लोक की अप्सरा की मांग की थी, माँ से मैंने ....
मृगतृष्णा सी यह रचना, मानवीय किशोरावस्था की कमजोरी और दमित इच्छाओं को इंगित करती है ....

इतनी सुंदर इतनी मोहक 
इतनी चंचल हिरनी जैसी  
नाजुक कटि काले केश युक्त 
कितनी कोमल फूलों जैसी 
लगता सूर्योदय से पहले 
उषा की भेंट निराली यह 
कवि की उपमा फीकी पड़ती , माँ यह गुडिया मुझको देदो
                                            माँ यह गुडिया मुझको दे दो 
घनघोर घटाओं के जग में 
उतरी नभ से चपला जैसी 
कैसा अनुपम निर्माण किया 
आभार तुम्हारा मानूं मैं 
है बारम्बार नमन मेरा 
इस रचना की निर्मात्री को
सारा जीवन  है न्योछावर  , माँ ये गुड़िया मुझको दे दो 
                                     माँ  यह गुडिया मुझको दे दो  !
काले जग काले लोगों से 
लड़ते लड़ते थक जाता हूँ 
अहसास निकटता का इसके 
होते ही दिल खिल जाता है 
सारी थकान, सारी चोटें  
इस मधुर हंसी पर न्योछावर 
सारे पुण्यों का फल लेकर माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
                                   माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
पर माँ चिंता है एक मुझे 
मैं इस रचना को रखूँ कहाँ 
डरता हूँ कालिख लगे हाथ 
इसको भी गन्दा कर देंगे 
शायद तुम भी क्रोधित होगी 
मेरी इस ना समझाई पर 
फिर भी दिल में है बात यही ,  माँ यह गुडिया मुझको दे दो !  
                                         माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
पर एक बात स्पष्ट कहूं 
मैं इसके योग्य नहीं हूँ माँ 
मैं हूँ सौदागर काँटों का 
यह रजनीगंधा सी महके 
कैसे समझाऊँ दिल अपना 
उद्दंड चाह , छोडूं  कैसे   ?
तू ही कुछ मुझे सहारा दे , माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
                                   माँ यह गुडिया मुझको दे दो !


      

कवि वंदना ...- सतीश सक्सेना

सबको देख दाख कर भोले, 
मैंने भी एक ब्लॉग बनाया
सुबह शाम पूजा की तेरी, 

मैं तेरे दरवाजे आया  !!

लिख लिख पन्ने काले करते,

प्यार मुहब्बत की बातें ,
और सामाजिक संबंधों पर, 

अमर-कहानी लिख दी  है !

देश प्रेम की बातें लिख दीं, 

देशद्रोहियों को गाली दी
सबक सिखा बेईमानों को , 

भ्रष्टाचार मिटाया है !


इतना सब लिख डाला, 
लेकिन एक शिकायत मुझको है
इतनी पूजा, व्रत,मेहनत में, 

पैसा एक न आता है ! 

मेरी कविता को चमका दे
मुझको भी होंडा दिलवा दे
बहुत दिनों से इच्छा मेरी
सारे जग में नाम करा दे


इतने दिन से करूँ साधना
मेरी इज्जत को चमका दे
मेरी कविता को भी भोले
बोलीवुड में नाम दिला दे


कबाड़खाना बंद करा दे
मोहल्ले में आग लगा दे
सारे पाठक मुझको ढूंढे ,
ऐसी टी आर पी करवा दे


मेरे ऊपर धन बरसा दे ,
कुछ लोगों को सबक सिखादे
मेरा कोई ब्लाग न पढता 
कुछ पाठक मुझको दिलवादे 



मेरे को ऊपर पहुंचादे
मेरा भी झंडा फहरादे
मेरे आगे पीछे घूमे,दुनिया,
ऐसी जुगत करा दे !


एक आखिरी बिनती मेरी
इतनी मेरी बात मान ले 
समीर लाल को धक्का देकर
उड़नतश्तरी मुझे दिला दे !

कैसे समझाऊँ प्यार प्रिये - सतीश सक्सेना

तुम मेरे दिल की रानी हो 
मैं तेरे दिल का कचरा हूँ ,

पति ढूँढा है,लक्ष्मीवाहन
तुम हो देवी सौभाग्यवती

तुम हो खिचडी में घी जैसी , 
मैं चटनी जैसा दिखता हूँ !   
मैं हूँ कैसा नादान  प्रिये  ! कैसे समझाऊँ  प्यार प्रिये   !!

तुम हो जैसे जीनत अमान 
मैं प्राण सरीखा,दिखता हूँ 
तुम तो हेमा की कापी  हो ,
मैं प्रेम चोपड़ा ,लगता हूँ !
दोनों पहिये बेमेल  मिले  , 

जीवन गाडी है खडी  प्रिये  !
मैं हूँ कैसा नादान  प्रिये ,  कैसे समझाऊँ प्यार प्रिये   !!

मैं एक गाँव का हूँ , गंवार ,
तुप छैल छबीली दिल्ली की
मैं  राम राम और पाँव छुऊँ 
तुम हाय हाय ओंर हेल्लो की  ,
जीवन गाडी के दो पहिये , 

दोनों कैसे  बेमेल मिले  !
मैं हूँ कैसा नादान प्रिये   कैसे समझाऊँ  प्यार प्रिये !

तुम हो गन्ने की रस जैसी 
मैं कोल्हू जैसा दीखता हूँ 
तेरा चेहरा, गुलाब जैसा 
मैं  भोंदू जैसा दिखता हूँ 
तुम नॉएडा में इंदिरा गाँधी 

मैं राज नारायण लगता हूँ !
मैं हूँ कैसा नादान प्रिये ,कैसे समझाऊँ प्यार प्रिये   !!

कचरा - सतीश सक्सेना

देवी जी ने मूड बनाया , 
कविता लिखनी कचरे पर 
कागज कलम उठा कर उसने 
करी चढ़ाई कचरे पर !
चार दिनों से यारो घर में 
भोजन बनता कचरे सा !
कविता बनें यथार्थ वादी घर को बदला कचरे सा 

कचरे वालों को बुलवाने 
बेटा भेजा कचरे पर 
इंटरव्यू  देने को आये 
सड़े भिखारी कचरे से 
देवी जी का दिल भर आया 
हालत देखी कचरे की !
घर में उस दिन बनी न रोटी यादें आयीं कचरे की 

लिख लिख कागज फाड़ के 
फेंके,ढेर लगाया कचरे का 
गृह सुन्दरता रास न आये 
किचन बन गया कचरे सा 
जैसे कभी नहीं खाली हो
सकती धरती कचरे से !
वैसे उनकी यह रचना भी अमर रहेगी  कचरे सी !

पापा मुझको लंबा करदो - सतीश सक्सेना


मेरी पहली कविता ! दिनांक ३०-१०-१९८९ में, मेरी ४ वर्षीया बेटी के नन्हें मुख से निकले शब्द कविता बन गए ! इस कविता का एक एक शब्द उस नन्हें मुख की जिद का सच्चा वर्णन है, यह बाल कविता स्वर्गीय राधेश्याम "प्रगल्भ" को समर्पित की गई थी, जो की उस समय "बालमेला" नाम की पत्रिका का संपादन कर रहे थे !


पापा मुझको लंबा करदो
भइया भी तो लंबा है
झूले पे चढ़ जाता है
गुस्सा मुझको आता है
मन मेरा ललचाता है, पापा मुझको लंबा कर दो !

मेरी टांगे छोटी हैं
ऊपर टाफी रक्खी है
मुंह में पानी आता है
हाथ पहुँच नहि पाता है, पापा मुझको लंबा कर दो !

मुझको मां बहलाती हैं
खूब सा दूध पिलाती है
मीठी मीठी बातें कहकर
बुद्धू खूब बनाती है , पापा मुझको लंबा कर दो !

कहती लम्बी हो जाओगी
दूध जलेबी जब खाओगी
कब लम्बी हो पाऊँगी ?
झूले पै चढ़ पाऊँगी ? पापा मुझको लंबा कर दो !

पाउडर नहीं लगाने देती
रोटी नहीं बनाने देती
छत पर नहीं भागने देती
कहती तुम मर जाओगी, पापा मुझको लंबा करदो !

मुझे खिलौने नही चाहिये
मेरी इतनी बात मान लो
भइया जितना लंबा कर दो
और कुछ नहीं मांगूंगी, पापा मुझको लंबा करदो !


अभिशाप -सतीश सक्सेना

बरसों पहले खेल खेल 
में हुआ किसी से प्यार 
और प्यार के बदले मुझको 
दिया तुम्ही ने शाप  ! 
तुम्हारा सत्य हुआ अभिशाप 
सुनयने ग्रहण किया वह शाप 

किसको अपना दर्द सुनाऊँ 
दिल की गहरी चोट दिखाऊँ 
ज्यों ज्यों बीते समय और 
भी बढ़ता जाता घाव , 
मानिनी जीवित रहता शाप  !
सुनयने ग्रहण किया वह शाप

क्यों आयीं जीवन में मेरे 
दोष अकेला मेरा कैसे 
बारम्बार भुलाना चाहूं ,    
ना     भूले  अभिशाप   ! 
रात भर दिल दहलता शाप !

हर आँगन में प्यार तलाशूँ 
मरुस्थल में  यार तलाशूं 
आशा लेकर फिरूं भटकता 
मिले   कहीं    ना  प्यार  , 
तुम्हारा पीछा करता शाप 
सुनयने जाग्रत  है वह शाप !  

चंदा  सूरज   चाहे  हमने 
मिलके देखे सपने हमने 
मगर विधाता ने किस्मत 
में   किया  क्रूर   उपहास  , 
चैन   से  ना  रहने   दे शाप  !
सुनयने ग्रहण किया वह शाप !   

स्वाभिमान - सतीश सक्सेना

समझ प्यार की नही जिन्हें है 
समझ नही मानवता की
जिनकी अपनी ही इच्छाएँ
तृप्त नही हो पाती हैं ,
दुनिया चाहे कुछ भी सोचे 
 कभी न हाथ पसारूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको दवा न तुमसे मांगूंगा !

चिडियों का भी छोटा मन है
फिर भी वह कुछ देती हैं
चीं चीं करती दाना चुंगती
मन को हर्षित करती हैं !
राजहंस का जीवन पाकर 
 क्या भिक्षुक से मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको , दवा न तुमसे मांगूंगा !

विस्तृत ह्रदय मिला इश्वर से
सारी दुनिया ही घर लगती
प्यार नेह करुणा और ममता
मुझको दिए , विधाता ने !
यह विशाल धनराशि प्राण, 
अब क्या मैं तुमसे मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको ,   दवा न तुमसे मांगूंगा !

जिसको कहीं न आश्रय मिलता
मेरे दिल में रहने आये
हर निर्बल की रक्षा करने
का वर मिला विधाता से
दुनिया भर में प्यार लुटाऊं 
 क्या निर्धन से मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको दवा न तुमसे मांगूंगा !

प्रिये दान से बढ कर कोई
धर्म नही है, दुनिया में  !
खोल ह्रदय कर प्राण निछावर
बड़ा प्यार है , दुनिया में  !
मेरा जीवन बना दान को 
 क्या याचक से मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको दवा न तुमसे मांगूंगा !

समता सदा बराबर वाले  
की ही करना , ठीक रहे !
दीपशिखा की लौ , होकर 
तुम करतीं तुलना सूरज से
करूं प्रकाशित सारा जग, 
मैं क्या दीपक से मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको ,   दवा न तुमसे मांगूंगा !

मेरी पूरी हुई साधना !
पद्मासन तुम सीख न पायीं
मैंने दर्शन किए प्रभू के
आराधना तुम्हे ना आई
परमहंस का ज्ञान मिला है 
 क्या साधू से मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको दवा न तुमसे मांगूंगा !

माँ सरस्वती से पाया वरदान
ह्रदय, कविता लिखने का
राग, द्वेष और ईर्ष्या में
तुम खो बैठी हो ह्रदय कवि का
कवि का ह्रदय लेखनी पाकर
क्या मैं तुमसे मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको दवा न तुमसे मांगूंगा !

गर्व सदा ही खंडित करता
रहा कल्पनाशक्ति कवि की
जंजीरों से ह्रदय और मन
बंधा रहे , गर्वीलों का !
मैं हूँ फक्कड़ मस्त कवि, 
 क्या गर्वीलों से मांगूंगा !
दर्द दिया है तुमने मुझको दवा न तुमसे मांगूंगा !

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